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    नेताओं के 'इंडिया' को आज़ाद हुए हो गए 74 साल । आम जनता का 'भारत' तो आज भी गुलाम है

     




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    We News 24»दिल्ली, भारत

    लेखक,विष्णु भट्ट 

     सम्पादकीय : पंजा, झाड़ू और कमल तीनों ने दिल्ली पर बारी-बारी शासन किया। इनमें से जो भी सत्ता में रहता, चाहे कोई इनकी पीठ पर मुक्का या घूँसा मार जाए ये खुशी से कहते कि हमारे कामों से खुश होकर हमारी पीठ थपथपा जाते हैं और प्रचार करते कि जनता सरकार को शाबाशी देती है और विपक्ष को लात-घूँसे दिखाई देते हैं।जब कभी कोई पीठ ठोकने वाला न मिलता तो खुद ही अपनी पीठ थपथपाते और खुद के गुणगान कर लेते। लोकतंत्र जनहित के कामों से नहीं बल्कि खुद के गुणगान से मजबूत होता है। कुछ तो जूते और थप्पड़ खाकर भी इसलिए खुश हैं क्योंकि इसी रास्ते उन्हें सत्ता के गलियारे में प्रवेश मिला।


    दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में तो यह सूत्रवाक्य ही सत्ता की कुंजी है। जब तक जनता अभावों में न घिरे हो और नेता फले-फूले न हो तो लोकतंत्र लचर और पिलपिला रहता है। जैसे -जैसे लोक (जनता) लचर और पिलपिले होते हैं उनकी हालत खस्ता होती जाती है वैसे-वैसे तंत्र मजबूत होता है।

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    नेताओं के 'इंडिया' को आज़ाद हुए 74 साल हो गए। जनता का 'भारत' तो आज भी गुलाम ही है। पहले अंग्रेजों की गुलाम थी और आज गुंडे मवाली और नेताओं की गुलाम है। आज़ाद देश में विकास की धारा ऐसी बही कि गुंडे, मवाली, नेता और मंत्री छोटे -छोटे घरों से फार्म हाउसों में विराजमान हो गए और जनता ने महलों से झोपड़ी तक का सफ़र तय किया। 


    विकास ने रफ़्तार पकड़ी तो क्या पंजा, क्या कमल और क्या झाड़ू सारे सभी के कलेवर में चमक आ गई। जो साइकिल और मोटरसाइकिल पर थे कार पर आ गए और जो कार पर थे वे ऑडी,मर्सडीज़, लैंडक्रूजर आदि तक ही पहुँच पाए। कुछ तो बस हैलीकॉप्टर और निजी विमान पर ही अधिकार कर पाए। हैलीकॉप्टर और निजी विमान मालिक नेताओं की संख्या अंगुलियों पर गिनी जा सकती है। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए चुल्लूभर पानी मे डूब मरने वाली है।जो लोकतंत्र आज़ादी के 74 वर्षों में भी अपने रहनुमाओं को सुविधा नहीं दे सके ऐसा लोकतंत्र दुनिया में किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं था लेकिन राजधानी दिल्ली में मुंडका विधानसभा क्षेत्र के झिमरपुरा गॉंव ने लोकतंत्र की लाज बचा ली। 


    आज़ादी के 74 साल बाद भी इस गाँव में परिवहन की सुविधा है ही नहीं। आज भी लोग दो किलोमीटर पैदल चलकर आते हैं तब जाकर कहीं उन्हें बस के दर्शन होते हैं। ऐसे ही बहुत सारे देश के गाँवों ने लोकतंत्र की लाज बचा रखी है वरना लोकतंत्र मारे शर्म के डूबकर मर गया होता? इसिलए कहते है कि लोकतंत्र गाँवों में बसता है।

    विष्णु भट्ट 

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