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    बिहार निकाय चुनाव में संस्पेंस , नीतीश सरकार ने नई बोतल में भर दी पुरानी शराब, फसेंगा मामला ?

    बिहार निकाय चुनाव में संस्पेंस , नीतीश सरकार ने नई बोतल में भर दी पुरानी शराब, फसेंगा मामला ?


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    We News 24 Digital»रिपोर्टिंग सूत्र  अमिताभ मिश्रा 

    पटना : बिहार राज्य निर्वाचन आयोग की ओर से नगर निकाय चुनाव की नई तारीखों का ऐलान कर दिया गया है। निर्वाचन आयोग की ओर से बकायदा चिट्ठी भी जारी कर दी गई है। पहले ये चुनाव 10 और 20 अक्टूबर को होने वाले थे। उसके बाद पटना हाई कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी। उसके बाद बिहार सरकार फिर से हाई कोर्ट गई और ये जानकारी दी कि आरक्षण को लेकर उसने कमेटी का गठन कर दिया है। इसके बाद 30 नवंबर की रात को राज्य निर्वाचन आयोग की ओर से नगर निकाय चुनाव की नई तारीखों का ऐलान कर दिया। आयोग ने इसके लिए 18 दिसंबर 2022 और 28 दिसंबर की तारीखों का चुनाव किया। आयोग ने ये भी घोषित कर दिया कि इसका रिजल्ट 30 दिसंबर तक आ जाएगा। सबसे बड़ा सवाल ये है कि इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में भी चल रही है।

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    सुप्रीम की और से आयोग की योग्यता पर सवाल

    हुआ यूं कि राज्य सरकार की ओर से गठित अति पिछड़ा आयोग की योग्यता पर सवाल खड़े हो गए हैं। उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट इस मामले की 20 जनवरी 2023 को सुनवाई करेगा। यानि कुल मिलाकर इस पूरे मामले में 'सुप्रीम' सस्पेंस बरकरार रहेगा। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट बिहार सरकार की ओर से गठित कथित पिछड़ा आयोग की योग्यता पर अपना फैसला देगा। नगर निकाय चुनाव इस तरह एक बार फिर विवादों में घिर सकता है। चुनावी मामलों के जानकार कहते हैं कि यदि सुप्रीम कोर्ट का फैसला पक्ष में नहीं आया, तो चुनाव फिर से स्थगित हो सकते हैं। साथ ही ये भी कहा जा रहा है कि यदि घोषित तिथि पर चुनाव संपन्न हो जाते हैं और उसके बाद कोई अलग फैसला सुप्रीम कोर्ट की ओर आता है, तो इसमें बदलाव हो सकता है। पटना हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता संजय पांडेय कहते हैं कि हो सकता है कि बिहार सरकार को जिद का परिणाम भुगतान पड़े।


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    महाराष्ट्र की तर्ज पर आ सकता है फैसला

    कानून जानकार इसे लेकर महाराष्ट्र के मामले का हवाला देते हैं। हुआ यूं था कि यदि महाराष्ट्र की तरह बिहार को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दे दिया, तो बिहार सरकार को बैकफुट पर आना पड़ेगा। महाराष्ट्र प्रकरण ये था कि 2021 में शिवसेना और एनसीपी, कांग्रेस वाली संयुक्त सरकार ने आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की तरह अध्यादेश लाकर अति-पिछड़ा आरक्षण लालू करने की कोशिश की। मामला जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, उसके बाद कोर्ट ने आरक्षण के प्रतिशत को उचित ठहराये जाने के आंकड़े को पर्याप्त नहीं माना। उसके बाद राज्य सरकार को स्थानीय निकायों में जहां अति-पिछड़ा को आरक्षण दिया गया था, उस पर रोक लगाना पड़ा। बाद में राज्य सरकार को अति-पिछड़ा के लिए आरक्षित सीटों को सामान्य सीट में तब्दील करना पड़ा, उसके बाद चुनाव कराना संभव हुआ।


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    आनन-फानन में बनाया गया आयोग

    नगर निकाय चुनाव पर हो रहे इस विवाद को समझने के लिए थोड़ा पीछे चलना होगा। आपको बता दें कि पटना हाईकोर्ट की तरफ से निकाय चुनाव पर रोक लगाये जाने के बाद बिहार सरकार ने अपनी ही पार्टी के कुछ नेताओं और बुद्धिजीवियों को शामिल कर आनन-फानन में पिछड़ा आयोग का गठन कर दिया। उसके बाद आयोग ने दो महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट को बिहार सरकार को सौंपा। इसी दौरान ये मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया। सुप्रीम कोर्ट ने नीतीश कुमार की सरकार की ओर से गठित की गई कमेटी को निकाय चुनाव के लिए समर्पित कमेटी मानने से इनकार कर दिया। सरकार को सुप्रीम फैसले का इंतजार करना उचित नहीं लगा। बिहार राज्य निर्वाचन आयोग ने तुरंत चुनाव की नई तिथियों का ऐलान कर दिया।

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     पटना हाई कोर्ट ने लगाई थी फटकार

    दूसरी तरफ विरोधियों से और हाई कोर्ट से इतनी फजीहत झेलने के बाद भी चुनाव की तारीख तो बदल गई, लेकिन इसके अलावा कुछ नहीं बदला गया। अक्टूबर में होने वाले चुनाव को पटना हाई कोर्ट ने स्थगित कर दिया। हाई कोर्ट ने साफ कहा था कि अति पिछड़ा वर्ग के लिए 20 फीसद आरक्षित सीटों को सामान्य कर, उसका फ्रेस नोटिफिकेशन जारी करें। लेकिन, बिहार सरकार ने इस आदेश पर ध्यान नहीं दिया। राज्य निर्वाचन आयोग ने आनन-फानन में तिथि तो बदल दी, लेकिन आरक्षण की स्थिति पर नोटिफिकेशन जारी करना भूल गई। कानूनी जानकारों की मानें, तो बिहार सरकार को ईबीसी का विश्लेषण कर एक डेटा तैयार करना था। सरकार ने बस नई बोतल में पुरानी शराब भर दी। इसमें बिहार सरकार की ओर से पूरी तरह गड़बड़ी की गई है।


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    फिर फसेंगा पेच

    पटना हाई कोर्ट ने जिस तरह का निर्देश बिहार सरकार को दिया था। उसके मुताबिक बिहार सरकार को सभी नगर निकाय वाले इलाकों में ओबीसी से जुड़ी जातियों का डाटा कलेक्शन करना था। उसके अलावा ये पता लगाना था कि उस नगरपालिका में अति-पिछड़ों की जनसंख्या कितनी है। उसके बाद कुल जनसंख्या के आधार के अनुपात में उनके प्रतिनिधित्व देखना था और उसके बाद सरकार को रिपोर्ट सौंपनी थी। लेकिन, ऐसा बिल्कुल नहीं किया गया। अब जब सुप्रीम सुनवाई 20 जनवरी को होनी है, तो ये सारे मामले उठ सकते हैं। उसके बाद दोबारा बिहार सरकार की ओर से गठित कमेटी पर सवाल खड़ा होगा। जानकार मानते हैं कि ये भी हो सकता है कि सुप्रीम फैसले में बिहार सरकार दोबारा बैकफुट पर आ जाए और सारी तैयारी धरी की धरी रह जाए।

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